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इन्द्र॒मिद्दे॒वता॑तय॒ इन्द्रं॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे । इन्द्रं॑ समी॒के व॒निनो॑ हवामह॒ इन्द्रं॒ धन॑स्य सा॒तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram id devatātaya indram prayaty adhvare | indraṁ samīke vanino havāmaha indraṁ dhanasya sātaye ||

पद पाठ

इन्द्र॑म् । इत् । दे॒वऽता॑तये । इन्द्र॑म् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । इन्द्र॑म् । स॒म्ऽई॒के । व॒निनः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । इन्द्र॑म् । धन॑स्य । सा॒तये॑ ॥ ८.३.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

सब शुभकर्म में परमात्मा ही पूज्य है, अन्य नहीं, यह इस ऋचा से शिक्षा देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवतातये) जो शुभकर्म देवों के द्वारा विस्तारित हो, उसे देवताति कहते हैं। यद्वा देवों का सत्कार जिसमें हो, वह देवताति=गृहस्थों का गृह्यकर्म। उसके लिये (इन्द्रम्+इत्) इन्द्रवाच्य परमात्मा को ही हम मनुष्य (हवामहे) बुलाते हैं, यज्ञ में उसी को पूजते हैं, परमात्मा का ही आवाहन करते हैं (अध्वरे) मानसिक यज्ञ जहाँ (प्रयति) प्रारब्ध होता है। वहाँ भी योगसिद्धि के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र को ही बुलाते हैं। (समीके) संग्राम में भी विजयलाभार्थ (इन्द्रम्) इन्द्र को ही बुलाते हैं (वनिनः) दानशील हम उपासक (धनस्य) धन की (सातये) प्राप्ति के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र का ही आह्वान करते हैं। जब-२ धन की आवश्यकता होती है, तब-२ परमात्मा की ही शरण लेते हैं। हे मनुष्यो ! तुम भी प्रत्येक शुभकर्म में उसी को पूजो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! परमात्मा को वारंवार स्मरण कर लौकिक और वैदिक सर्व कर्म करो। सर्वत्र उसी को पूजो। वही सबका अधिपति है। जो श्वास-प्रश्वास लेता, चलता, अथवा स्थिर है, उन सबका कर्ता वही है। निश्चय सूर्य्यादिकों का भी जनक वही है। तब कौन अन्य उपास्य है। मुग्धजन अन्य देवों की उपासना करते हैं ॥५॥
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आर्यमुनि

अब सब शुभ कामों में कर्मयोगी का आह्वान करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वनिनः) उपासक लोग (देवतातये) यज्ञ में (इन्द्रं, इत्) कर्मयोगी को ही (प्रयति, अध्वरे) यज्ञ प्रारम्भ होने पर (इन्द्रं) कर्मयोगी को ही (समीके, इन्द्रं) संग्राम में कर्मयोगी को ही (धनस्य, सातये, इन्द्रं) धनलाभार्थ कर्मयोगी को ही (हवामहे) आह्वान करते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् पुरुष तथा ऐश्वर्य्यसम्पन्न श्रीमान् प्रजाजन विद्वानों से सुशोभित धर्मसमाज में, यज्ञ के प्रारम्भ होने पर, संग्राम उपस्थित होने पर और धन उपार्जनवाले कामों के प्रारम्भ करने में कर्मयोगी को आह्वान करते=बुलाते हैं अर्थात् ऐसे शुभ कामों को कर्मयोगी की सम्मति से प्रारम्भ करते हैं, ताकि उनमें सफलता प्राप्त हो ॥५॥
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शिव शंकर शर्मा

सर्वस्मिन् शुभकर्मणि परमात्मैव पूज्यो नान्य इत्यनया शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - देवतातये=देवैर्विद्वद्भिस्तायते विस्तार्य्यते यः स देवतातिः शुभकर्म। तस्मै। इन्द्रमिद्=इन्द्रमेव। वयं हवामहे=आह्वयामहे। यद्वा। देवा विद्वांसस्तायन्ते पूज्यन्ते यस्मिन् स देवतातिः गृहस्थानां गृह्यं कर्म। तदर्थं गृहस्था वयमिन्द्रं हवामहे। अध्वरे=यज्ञे। प्रयति=प्रगच्छति सति। इन्द्रमेव हवामहे। समीके=संग्राम उपस्थिते सति। इन्द्रमेव हवामहे। वनिनः=वनितुं दीनेषु संविभाजयितुं शीलं येषामिति वनिनो दातारो वयम्। क्षीणे क्षीणे धने। धनस्य=वित्तस्य। सातये=लाभाय। इन्द्रमेव हवामहे ॥५॥
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आर्यमुनि

अथ शुभकर्मसु कर्मयोगिन आह्वानं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वनिनः) उपासका वयं (देवतातये) देवैस्तननीये यज्ञे (इन्द्रं, इत्) कर्मयोगिनमेव (प्रयति, अध्वरं) यज्ञे प्रक्रान्ते (इन्द्रं) कर्मयोगिनमेव (समीके, इन्द्रं) संग्रामे इन्द्रमेव (धनस्य, सातये, इन्द्रं) धनलाभाय इन्द्रमेव (हवामहे) आह्वयामः ॥५॥